Friday, January 28, 2011

धोभी घाट का सच .....

लम्बे समय के बाद शुक्रवार को समय मिला, ऑफिस के ख़बरों से दूर.... आज़ाद पंछी की तरह शहर के आबो-हवा में दिन भर चहल कदमी करते हुए आधुनिक सीपी पहुंचा जिसे पुराना नाम कनाट प्लेस से भी जाना जाता है...योजना थी धूप भी शेकी जाए और कॉफ़ी भी पी ली जाए...साथ मिला मेरी प्यारी मित्र का...जो शहर के दूसरे छोर पर रहती थी...सोचा कि शुक्रवार है तो क्योँ कोई अच्छी सी फिल्म देख ली जाए...सो आमिर खान की फिल्म धोबी घाट देखने पहुँच गए....मशहूर हाल रिवोली के खिड़की पर पहुचे, और दो टिकेट ले ली....वहां खडी मोहतरमा को पूछा मूवी कैसी है ...जवाब आया ठीक सर !

मैंने भी सोचा आमिर खान की फिल्म है, कोई बुराई नहीं है देखने में, कुछ कुछ मेसेज तो होता ही है, और लीक से हटकर बनाने कि उनकी फितरत भी है....खैर, अन्दर घुसे ... सीट में बैठे तो पता चला कि यह नॉन स्टॉप फिल्म है, कोई इंटरवल नहीं है.....चलो ये भी सही..नया अनुभव ! फिल्म शुरू हुई....हिंदी -अंग्रेजी मिक्स बोलते हुए एक विदेश से आयी हिन्दुस्तानी युवती....और आमिर खान का साथ.....ऊपर से बिहार के धरबंगा से मुंबई गए एक धोबी युवक के बीच पूरी फिल्म धुलती रहती है...जब शुरू हुई फिल्म तो पता चला कि निर्देशन उनकी नयी पत्नी किरण राव ने किया है...जो पहले सहायक निर्देशक भी रह चुकी थी फिल्म लगान में....और आमिर को नचाया भी था...उनके दिल में आमिर के साथ प्यार का अंकुर वही से फूटा, जो बाद में फूल बनकर आमिर खान की जिन्दगी में विराजमान है ...खैर...फिल्म आगे चलने लगी तो पता चला आमिर पेंटर बाबू बने हैं...जिनके सम्बन्ध उस युवती से बन जाते हैं जो इंडिया आई है और फोटोग्राफी कर रही है..आमिर शर्मिंदा होते हैं युवती मस्त ! बिहार से गया धोबी की मुंबई की गलियौं में चप्पलें घिसते घिसते शाम हो जाती है...लोगों के घर पर कपडे पहुचाता है और लाता है धोने के लिए...मगर उसकी अपनी मजबूरी है...पूरी फिल्म में भागता ही रहता है....मुंबई शहर के विसुअल्स अच्छे हैं, कलात्मक दृष्टि से देखा जाये तो फिल्म उस कैटेगरी में आती है....लेकिन अंत में एक मेसेज देने के मामले में निर्देशक भटक जाता है....जैसे पुरानी टेप बीच में चलनी बंद हो जाती है और फिर दिल में ख्याल आता है पता नहीं बीच में अंत में क्या हुआ होगा....आमिर मझे हुए कलाकार हैं, धोभी वाले लड़के को और मेहनत करने की जरुरत है.....विदेशी युवती ने अच्छा अभिनय किया है, कैमरा बीच बीच में शेक करता है मगर चल पड़ा है क्यूंकि बेस ठीक था...लेकिन कहानी लिखने वाला और निर्देशक दोनू की बीच लगता है कुछ कुछ मन मुटाव था....तीन घंटे की शायद होती तो फिल्म अच्छी बन पड़ती...लेकिन डेढ़ घंटे में फिल्म बिना ब्रेक के निपटा दी गई ....सायद लोग पचा नहीं पायेंगे ...मॉस के लिए नहीं है फिल्म लेकिन स्पेसल क्लास भी कहना उचित नहीं होगा....गाल भर हाथ रख कर में भी सोचता रहा कि कहानी समझ में जाए...लेकिन बीच बीच में दिमाग मुझ सी ही पूछ बैठता ऐसा कैसे हुआ ?क्या यही आमिर इफेक्ट है? किरण राव तो में सलाह दूंगा थोड़े दिन फिल्म छोड़ कर घर ग्रहस्ती संभाल ले....वरना आमिर के लिए खतरा हो सकती है.....फिल्म संसार सफलता मांगता है कि असफलता....बाकी मेरी मित्र मेरे साथ बैठी थी...वो मुझे पूछ रही थी धोबी ने बिल्ली/चूहे को क्योँ मारा? अब वो बिल्ली थी या चूहा और फिर उसका मरना का लोजिक कौन उसे समझाए....उसका भी पूछना जायज था....कुल मिलाकर एक शोट पसंद आया..आमिर के .हाथ में जाम और बाहर बारिस और जाम /मदिरा में बारिस का गिरते हुए पानी का मिलाना......नेचुरल नशा ! मुंबई शहर के मद मस्त अंदाज को दर्शाता है..... रचनात्मकता और कलात्मकता के भंवर में फिल्म धोबी घाट पहुँच गई है।
अंत में मुझे खुशी इस बात की है मैंने फिल्म देखी.....वो भी... शुक्रवार को ! कैसे थी और क्या थी भूल जाना बेहतर है ...अपनी मित्र के बारे में कुछ नहीं कह सकता क्योँ की हर किसी का अपना सोचना है......वो जितनी भोली और रियल है फिल्म उसके लिए उतनी अधिक जटिल थी....लेकिन वो भी खुश थी क्यूंकि उसने मेरे साथ फिल्म देखी....बाहर निकले तो कॉफ़ी ली....बिरयानी खायी और घर गए....मगर धोभी घाट मत जाना !

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